सरहुल : मूलवासियों का प्राकृतिक महापर्व | Sarhul : Indegenous Festival of Jharkhand | Sarhul 2023

झारखण्ड राज्य प्रकृति से जुड़ा भारत का वह राज्य है , जो प्रकृति को हर तरीके से पूजता है फिर वो चाहे क्यों न यहाँ की जंगलों की हो या पेड़ पौधों की , फसलों की हो या फिर पहाड़ों – नदियों की। झारखण्ड राज्य के लगभग सभी जनजाति प्रकृति से बिलकुल करीब होते हैं।

इनके प्रकृति से जुड़े होने के कारण ही यहाँ प्रक्रति से जुड़े हुए रहने के कई प्रमाण भी मिलते रहते हैं। फिर वो क्यों न किसी भी प्रकार से हो। प्रकृति को पूजना इनका सर्व प्रथम धर्म है।”Sarhul “झारखण्ड की प्रकृति से जुडी हुई मुख्य पर्व है।

Sarhul Festival image

प्रकृति को पूजते हुए झारखण्ड में कई सारे त्योहार मनाये जाते हैं। उनमे से एक मुख्य त्योहार है जो की पुरे झारखण्ड में पुरे हर्सोल्लास और धूम धाम से मनाया जाता है। इस त्योहार का लोग साल भर से इंतज़ार भी करते हैं। इस पर्व को लोग सरहुल (Sarhul) के नाम से जानते हैं।

तो चलिए आज हम इस त्योहार के बारे में ही जानेंगे ,इससे जुडी रोचक बातें । सरहुल कब मनाया जाता है , क्यों मनाया जाता है , कहाँ कहाँ मनाया जाता है , कैसे मनाया जाता है ? यह सब कुछ जाएंगे आज के इस आर्टिकल में।


सरहुल एक प्राकृतिक पर्व

सरहुल आदिवासियों व मूलनिवासियों का प्रमुख पर्व है , जो की प्रकृति पर्व या सरहुल नाम से जाना जाता है। जिस भांति बिहार में छठ प्रमुख पर्व है , बंगाल में दुर्गा पूजा ठीक उसी प्रकार झारखण्ड में सरहुल का पर्व बहुत ही मुख्य व प्रमुख है।

सरहुल का अर्थ

Sakhua flower image

सरहुल दो शब्दों से मिलकर बना है ” सर ” और ” हुल” .यहाँ सर का अर्थ है “ सरई “ अर्थात “सखुआ या साल पेड़ “ के फूल से होता है , जबकि हुल का अर्थ ” क्रांति “ से है। जिसका पूरा शाब्दिक अर्थ है : सखुआ के फूलों की क्रांति या सखुआ के फूलों द्वारा होने वाली क्रांति को सरहुल के नाम से जानते हैं। मुख्यतः यह पर्व फूलों (सखुआ के फूलों ) का पर्व है।

सरहुल कब मनाया जाता है ?

सरहुल पर्व प्रत्येक वर्ष के चैत्र शुक्ल पक्ष के तृतीया से शुरू होकर चैत्र के पूर्णिमा के दिन संपन्न होता है। यह प्रकृति पर्व वसंत ऋतू में मनाये जाने वाला आदिवासियों का प्रमुख त्यौहार है। वसंत ऋतू में जब पेड़ के पत्ते पतझड़ में अपनी पुराणी पत्तियों को गिरा कर टहनियों पर नये नये पत्तियां लेन लगती है तब सरहुल का पर्व मनाया जाता है।

Sarhul : festivals of jharkahnd

सरहुल पर्व चार दिनों तक मनाया जाता है। जिसकी शुरुवात चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया से होती है। अंग्रेजी माह के अनुसार यह पर्व मुख्य रूप से अप्रैल के माह में मनाया जाता है। कभी कभी यह अंतिम मार्च में भी मनाया जाता है।

सरहुल पर्व कहाँ मनाया जाता है ?

सरहुल पर्व प्रमुख रूप से झारखण्ड राज्य में मनाया जाता है। इसके अलावे मध्य प्रदेश , ओडिशा ,पश्चिम बंगाल में भी मनाया जाता है। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में इसे बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है . इस पर्व में पूजा होने के बाद नृत्य के साथ गायन का भी कार्यक्रम किया जाता है।

सरहुल पर्व कैसे मनाया जाता है ?

सरहुल चार दिवसीय पर्व है जो की तीन दिनों तक चलता है। सरहुल के पहले दिन मछली के अभिषेक किये हुए जल को घर में छिड़का जाता है। और सरना में दो घड़ों में जल रखा जाता है ।

उपवास रखा जाता है , तथा गांव के पुजारी जिन्हें “पाहन” कहा जाता है।वह हर घर की छत पर साल के फूल को रखता है।

Sarhul pahan image

दूसरे दिन पाहन द्वारा उपवास रखा जाता है तथा ‘ सरना ‘(पूजा स्थल ) पर सारे के फूलों ( सखुआ के फूल के गुच्छों )की पूजा की जाती है। साथ ही ‘मुर्गी की बलि‘ दी जाती है तथा चावल और बलि की मुर्गी के मांस को मिलकर ‘ सुंडी ‘ नामक ‘ खिचड़ी ‘ बनायीं जाती है।

जिसे प्रसाद के रूप में पुरे गांव में वितरित किया जाता है। तीसरे दिनगिड़ीवा ‘ नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है।

सरहुल में साल के पेड़ का महत्व

सरहुल के पूजा में साल के पेड़ को इसलिए खास मन जाता है क्योकि इस पेड़ के फूल से ही सरहुल में पूजा होती है। साल के पेड़ झारखण्ड के लगभग सभी जगहों पर पाए जाते हैं।

Sakhua leaves image

आदिवासियों के अनुसार इस पर्व के बाद ही नयी फसल ( रबि फसल ) विशेषकर गेंहू की कटाई आरम्भ कर देते हैं। इस पर्व के बाद ही आदिवासियों का नव वर्ष भी शुरू होता है।

सरहुल पूजा में केकड़ा का महत्व

जिस केकड़ा को देखकर अधिकतर लोग डर जाते हैं ,उसे पुजारी यानि पाहन उपवास रख केकड़ा पकड़ता है। और केकड़े को पकड़कर पूजा घर में अरवा धागा से बांधकर टांग दिया जाता है। और जब की बोवाई की जाती है तब इसका चूर्ण बनाकर गोबर में मिलकर धान के साथ बोया जाता है।

Sarhul kekda image

दरअसल ऐसी मान्यता है की जिस तरह केकड़े के असंख्य बच्चे होते हैं ,ठीक उसी प्रकार धान की बालियां भी असंख्य होंगी।

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सरहुल में सफ़ेद और लाल कपड़ों का महत्व

सरहुल के दिन महिला सफ़ेद में लाल पाड़ साड़ी और लड़के सफ़ेद धोती बनियान और लाल गमछा पहनकर पूजा और नृत्य करते हैं। सफ़ेद पवित्रता और शालीनता का प्रतिक है जबकि लाल संघर्ष का।

Sarhul saree images

सफ़ेद रंग ‘ सिंगबोंगा ‘ तथा लाल रंग बुरुबोंगा का प्रतिक माना जाता है इसलिए सरना झंडा में सफ़ेद और लाल रंग होता है।

सरहुल के अन्य नाम

आदवासियों के आवास स्थलों के विभिन्न क्षेत्रों में सरहुल को अलग अलग नामो से जाना जाता है।

उरांव जाती के लोग इसे ‘ खद्दी ‘ बोलते हैं

संथाली लोग ‘ बा परब ‘ के नाम से भी जानते हैं

खड़िया भाषा में इसे ‘ जकोर ‘ कहते है

सरहुल से जुड़ी पौराणिक किस्सा

सरहुल पर्व से जुडी कई कहानियां मौजूद हैं उनमें से एक काफी प्रचलित है जो महाभरा से जुडी हुई है। इस कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध चल रहा था , तब आदिवासियों ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था।

जिस कारण कई मुंडा सरदार पांडवो के हाथो मरे गए थे। इसलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर के साल के पत्तों और शाखाओं से ढका गया था। इस युद्ध के दौरान ऐसा देखा गया की जो साल के पत्तों से ढके गए थे वह सड़ने से बच गए थे और ठीक थे।

पर जो दूसरे पत्तों व अन्य चीज़ों से ढके गए थे वे शव सड़ने लगे थे। इसे देखकर आदिवासियों का साल वृक्षों और पत्तों पर और भी विश्वास बढ़ गया और वे लोग इसे और भी श्रद्धा से पूजने लगे। जो की सरहुल के रूप में मनाया जाने लगा।

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सरहुल में किस वृक्ष की पूजा की जाती है ?

सरहुल के दिन सखुवा या साल के वृक्ष की पूजा अर्चना की जाती है। इस पर्व में साल के फूलों से ही पूजा की जाती है इसलिए इसे फूलों का पर्व भी कहा जाता है ।

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